International Child Girl Day: घर का चिराग होती है बेटियाँ|

 कहा जाता है कि किसी भी मामले में बेटों से कम नहीं हैं बेटियां। बल्कि कई मामलों में तो बढ़कर हैं। जिम्मदारी का अहसास जितना उन्हें है, शायद ही बेटों को हो। रमणी व निभा कुमारी जैसी बेटियां उनमें हैं जो न केवल परिवार का सहारा हैं बल्कि मुश्किल हालात से जूझकर बेटों की जिम्मेदारी बखूबी पूरी कर रही हैं।

दिव्यांगता को नहीं बनने दी मजबूरी, नौकरी कर घर चला रही रमणी

बेटियां भी घर का चिराग हो सकती हैं। रमणी ने इस बात को साबित कर दिखाया है। पोलियो ग्रस्त होने के बावजूद अपनी दिव्यांगता को कभी मजबूरी नहीं बनने दिया। नर्स की नौकरी कर अपने घर का सहारा बनी हुई है। रमणी लकड़ा मूल रूप से खेलारी के सूदुर गांव की रहने वाली है। रांची में रहकर एक अस्पताल में नर्स का काम करती है। रमणी की कमाई से ही घर चलता है। खेलकूद में रुचि रखनेवाली रमणी जिला स्तर वालीबाल प्रतियोगिताओं में भी हिस्सा ले चुकी है। 

कहती है- बचपन से गरीबी देखी है। पिता लक्ष्मण लकड़ा दूसरे के खेतों में काम करते थे। इसके बावजूद पढ़ाया और नर्सिंग का कोर्स कराया। वे जानते थे कि गरीबी केवल शिक्षा से दूर हो सकती है। बड़ा भाई भी है जो मगर पढ़ा-लिखा नहीं होने की वजह से पिता की तरह दूसरों के खेतों में काम करता है। रमणी अपनी छोटी बहन को भी पढ़ा रही है। छोटी बहन भी चाहती है कि अपने पैरों पर खड़ी होकर घर का सहारा बने। रमणी बताती है, गांव के लोग हमें देखकर कहते हैं कि हम अपने पिता की बेटी नहीं बेटे हैं। बहुत गर्व महसूस होता है।

मोरहाबादी मैदान के पास हाथों में किताब पकड़े मिट्टी के बर्तन बेचती लड़की आते-जाते लोगों का ध्यान खींचती है। किताब पढ़ते हुए अगर ग्राहक आ गए तो तत्परता से उन्हें मिट्टी के बर्तन दिखाती है। इसके बाद फिर अपनी पढ़ाई में लग जाती है। इस लड़की का नाम है निभा कुमारी। बर्तन बेचने में मदद करने के साथ वह पांचवी कक्षा में पढ़ाई कर रही है। 

निभा ने बताया कि उसके घर में दो और बहने हैं। मां घरों में सफाई का काम करती है। लाकडाउन में संक्रमण के भय से लोगों ने काम करवाने से मना कर दिया। घर में खाने तक को कुछ नहीं बचा को तीनों बहनों ने मिलकर ये काम शुरू किया। निभा बोडय़ा में रहती है। वहीं पास के स्कूल में पढऩे जाती थी। लाकडाउन स्कूल बंद है। वो घर में खुद से पढ़ाई कर रही है।

स्कूल के शिक्षकों से कभी-कभी मदद मिल जाती है। निभा के काम में अब उसकी मां शाम में मदद करती है। घर में महीने में पांच हजार रुपये तक मिट्टी के बर्तन बेचकर आ जाते हैं। अपने परिवार को संभालने में तीनों बहनों ने लाकडाउन में अहम योगदान दिया।




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